इंदिरा के नेतृत्व में वैसे तो देश ने पहले न्यूक्लियर बम का टेस्ट 1974 में ही कर लिया था
और तब भारत उन छह एलीट देशों की फेहरिस्त में शामिल हो गया जिन्होंने अपने दम पर न्यूक्लियर बम फोड़ा था. 1974 के बाद से भारत ने भारी वैश्विक दबाव के बावजूद अपने न्यूक्लियर प्रोग्राम को जारी रखा.
ऐतिहासिक पोखरण परीक्षण को आज 20 साल पूरे हो गए. अब जब भारत एक महाशक्ति बनने की राह पर है तो ये बात बिल्कुल आम सी लग सकती है. लेकिन जब देश ने पांच बेहद शक्तिशाली परमाणु धमाके किए थे तब इसे चौतरफा दबाव का सामना करना पड़ा था.
पहली बार परमाणु बम की ज़रूरत का एहसास 1962 के युद्ध के बाद हुआ
भारत को एक देश के तौर पर पहली बार परमाणु बम की ज़रूरत का एहसास चीन के साथ हुए सन् 1962 के युद्ध के बाद हुआ. इस युद्ध में देश को मुंह की खानी पड़ी थी. दरअसल चीन ने अपना पहला न्यूक्लियर टेस्ट 1964 में ही कर लिया था जिसके बाद संसद में पू्र्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने एक बयान में कहा था कि बम का जबाव बम ही होना चाहिए.
महात्मा गांधी के देश भारत में जब तक पंडित जवाहर लाल नेहरू पीएम रहे तब तक देश के लिए न्यूक्लियर बम हासिल करना सपने के जैसा बना रहा. लेकिन नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी जब देश की पीएम बनीं तब उन्होंने पाकिस्तान और चीन से दोनों तरफ से घिरे होने के ख़तरे को बहुत गंभीरता से लिया और देश का न्यूक्लियर प्रोग्राम शुरू किया.
इंदिरा गांधी ने पहले न्यूक्लियर बम का टेस्ट 1974 में ही कर लिया था
1971 के युद्ध में पाकिस्तान को दो टुकड़े करके बांग्लादेश को जन्म देने वाली इंदिरा के नेतृत्व में वैसे तो देश ने पहले न्यूक्लियर बम का टेस्ट 1974 में ही कर लिया था और तब भारत उन छह एलीट देशों की फेहरिस्त में आ गया जिन्होंने अपने दम पर न्यूक्लियर बम फोड़ा था. 1974 के बाद से भारत ने भारी वैश्विक दबाव के बावजूद अपने न्यूक्लियर प्रोग्राम को जारी रखा.
इस कार्यक्रम को आगे बढ़ाने में वीपी सिंह से लेकर नरसिम्हा राव तक शामिल रहे हैं. 1995 में कांग्रेस की नरसिम्हा राव सरकार ने भी इसे अपनी हरी झंडी दी थी. लेकिन इस दौरान अमेरिकी खुफिया एजेंसी CIA ने भारत के न्यूक्लियर बम बनाने की गतिविधियों को अपनी सेटेलाइट से पकड़ लिया. इसके बाद भारत के अब के दोस्त अमेरिका ने तब धमकी जारी की थी कि अगर भारत न्यूक्लियर प्रोग्राम जारी रखता है तो उसपर प्रतिबंध लगाए जाएंगे.
1998 में दोबारा PM बनने के बाद वाजपेयी ने पोखरण- 2 का सपना पूरा किया
1996 में तो इसी सिलसिले में अमेरिकी अधिकारी खुद भारत आए और भारत को न्यूक्लियर प्रोग्राम के वो सबूत सौंपे जो अमेरिका के पास थे. इसी बीच 1996 में ही वाजपेयी भारत के प्रधानमंत्री बने और इस बात के आदेश दिए कि न्यूक्लियर टेस्ट किए जाएं. इस आदेश के महज़ दो दिनों बाद उनकी सरकार गिर गई. 1998 में वाजपेयी ने एक बार भारत के पीएम पद की शपथ ली और फिर से सत्ता में आए.
वाजपेयी के पीएम बनने के बाद दिल्ली स्थित साउथ ब्लॉक में सीक्रेट मीटिंग्स हुईं. ये मुलाकात तब के डीआरडीओ प्रमुख अब्दुल कलाम और वाजपेयी के बीच हुई. मीटिंग में एटॉमिक एनर्जी चीफ डॉक्टर आर चिदंबरम, बार्क चीफ अनिल काकोदकर, एनएसए ब्रजेश मिश्रा, गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी मौजूद थे.
ऐसी कुल दो मीटिंग्स हुई थीं जिसके बाद वाजपेयी ने एक बार फिर से न्यूक्लियर परीक्षण को हरी झंडी दे दी. परीक्षण के लिए 27 अप्रैल 1998 की तारीख तय की गई. लेकिन डॉक्टर आर चिदंबरम की बेटी की शादी की वजह से ये तारीख टाल दी गई. सात मई 1998 को परीक्षण के लिए साज़ो सामान पोखरण पहुंचाया गया.
यहीं से बना CIA की सेटेलाइट को चकमा देने का मास्टर प्लान
डीआरडीओ ने पहले तो ये पता लगाया कि वो कौन सा वक्त होता है जब अमेरिकी खुफिया एजेंसी CIA का सेटेलाइट भारत की निगरानी नहीं कर रहा होता है. इसके बाद ये भी तय किया गया कि सभी वैज्ञानिक रात में काम करेंगे. इसके पीछे की वजह ये थी कि रात में सेटेलाइट से पोखरण में हो रही गतिविधि का पता लगाना मुश्किल था.
इस परीक्षण के लिए देश के वैज्ञानिकों ने हर परीक्षा दी. उन्होंने फौज के कपड़े तक पहने ताकि उन्हें सेटेलाइट की मदद के बावजूद नहीं पहचाना जा सके. वैज्ञानिकों को असली फौजियों के बीच रखा गया ताकि दोनों के बीच के अंतर का पता ना चल पाए. बेहद कम सुरक्षा इंतज़ाम रखे गए ताकि किसी तरह का कोई शक पैदा ना हो.
इतने बड़े मिशन में कम सिक्योरिटी होने का अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं कि उमंग कपूर की कमांड में वहां महज़ चार फौजी ट्रक मौजूद थे. वहीं, सभी वैज्ञानिकों को कोड नेम दिया गया. अब्दुल कलाम को मेजर जनरल पृथ्वीराज का नाम दिया गया.
जब परीक्षण का मौका आया तब हवाएं साथ देती नहीं दिख रही थीं. दरअसल ये आबादी वाले इलाके की ओर बह रही थीं. इस स्थिति में परीक्षण करने पर रेडिएशन फैलने का ख़तरा था. लेकिन दोपहर तक हवाएं शांत हो गईं और भारत के धमाके की गूंज से दुश्मनों के साथ-साथ पूरी दुनिया कांप उठी. इसके बाद तो मानों देश में एक नई जान सी आ गई और मीडिया से लेकर आलोचकों तक ने इसे ऐतिहासिक कदम करार दिया.
हां, भारत की इस अपार सफलता से अमेरिका ज़रूर दुखी था और उनके CIA ने भी माना की भारत उन्हें आसानी से चकमा देने मे सफल रहा. इस धमाके के साथ ही 1998 के 11 मई का दिन अमर हो गया और इसे राष्ट्रीय तकनीक दिवस के तौर पर मनाया जाने लगा.
Awesome Story
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